Saturday, October 30, 2010

चौपदा

दलदल में यह देश क्यों भला न धंसता जाय |
हर दल  खड़ा   धकेलता  अब  हो   कौन  उपाय |
अब हो  कौन   उपाय   सभी    बाहर   से   चंगे |
मगर यहाँ   हम्माम   में हैं   सब के सब  नंगे |

चौपदा

जनता का दरबार है जनता की सरकार |
जनता को चूना लगे  जनता है    लाचार |
जनता है  लाचार   तमाशा   देख  रही है |
इसकी खरी कमाई   कुर्सी   ऐंठ    रही है |

Wednesday, October 27, 2010

पारस पत्थर

कल जब मिले थे हम-तुम
तुम पत्थर थी और मैं लोहा
तुमने छू लिया मुझे
मैं सोना बन गया और तुम-
पारस पत्थर
मैं अपनी चमक में गुम होता गया
और तुमने कई लोहे के टुकड़ों को-
बना दिया सोना अपने स्पर्श से
आज मैं सोचता हूँ कि
मेरा और तुम्हारा स्पर्श ही -
न हुआ होता तो अच्छा था
तुम पत्थर और मैं लोहा
कम से कम एक साथ 
खुरदरी जमीन पर पड़े-पड़े 
एक दूसरे को प्यार से 
एकटक देखते तो रहते  

Tuesday, October 26, 2010

यमराज का भतीजा है

सूरज की रोशनी में मक्खन सा उजला है
लेकिन अँधेरे में मक्कार बगुला है
दिन में अहिंसावादी -
गाँधी और बुद्ध का अनुयायी है
लेकिन अँधेरे में -
हिटलर का जमाई है
चुनाव के पहले रहनुमा है गरीबों का
चुनाव के बाद -
सिर्फ स्वार्थ-युद्ध जारी है
देश-कल्याण की आंड  में छुप-छुप कर-
जिसने आज़ादी की इज्जत उतारी है
खादी के तंतुओं में-
निहित भावनाओं को
जिस नकाबपोश दरिन्दे ने
जनता के खून से सींचा है
वह  नेता है-मानव नहीं है
देश का दुश्मन है-नर्क का अधिकारी है-
यमराज का भतीजा है 

Tuesday, October 19, 2010

हमार अर्जी

इस समय उत्तर प्रदेश में पंचायत चुनाव चल रहा है | प्रत्याशी मतदाताओं को रिझाने की तरह-तरह की कोशिशें कर रहे हैं | जहाँ एक तरफ दारू-मुर्गा की खुलेआम दावतें दी जा रही हैं वहीँ दूसरी तरफ गरीब प्रत्याशी अपनी सेवाओं की यादें दिलाकर वोट मांग रहे हैं | ऐसा ही एक गाँव है जहाँ का प्रधान पद पिछड़े वर्ग में आरक्षित हो गया है किन्तु माल काट चुके पूर्व प्रधान अपने जेबी प्रत्याशी को लड़ाकर फिर से सत्ता हथियाने की कोशिश में लगे हैं | इसी गाँव का एक गरीब प्रत्याशी जो जाति एवं पेशे से नाई है, कुछ अलग ढंग से ही वोट देने की मार्मिक अपील जनता से कर रहा है, वह भी ठेठ बोलचाल की अवधी भाषा में | ज्यों की त्यों उसी की अर्जी प्रस्तुत है----------

                                 "  हमार अर्जी " 

बेलहा मौजा कै हमार बाबा,दादा,काका,भैया,भौजी,काकी,बहिनी,दादी सबका शफीउल्ला नाऊ कै राम-राम,पायंलागी,सलाम |
    आप सभे जनते हौ की अबकी हमहूँ परधानी पर खड़े होइ गेन है |आपै सबके बल भरोसे पर लड़ी गेन ,नाई तौ हमार कौन औकात है | हमार बाप-दादा आप सबके जजमानी माँ आपन  जिंदगी बिताय दिहिन ,हमहूँ आपै सब के सेवा मा लाग हन औ जिंदगी भर लाग रहब |आप सबके घरे लरिका पैदा होय तौ हमहूँ का वतनय ख़ुशी होई जेतना आपका | बियाह,गवन,मूडन,छेदन,सब मा तौ हम रहित है आपै सब के बिच्चा मा हमहूँ ख़ुशी मनायित है | हमार महतारी,मेहारू,काकी,चच्ची सभे आप सबके बाहर से भित्तर तक सेवा मा लाग रहति हैं |आप सभे बड़े अपनपौ से जब कुछू ठानत हौ तौ गोहरावत हौ शफीउल्लवाकहाँ गवा ? तनी भर आंख से ओटनाई होय देत हौ | घर के लरिका अस दुलारत हौ, मानत हौ |अरे हम तौ घर-घर कै बिलारि होई | जौ कहूं घर मा कूकुर घुसरि जाइ तौ डंडा से पिटहरा जात है मुला बिलारि तौ घरय मा रहति है | जौ ऊ हंडिया भर दूध जुठार देति है तबौ कोई मारत नाई है तनी भर रिसियाय भले जाय |
             भैया बहुत दिन से अलक्सन मा हमार घर-परवार आप सभै जहाँ चाहेव वोट दिहिस | आज जब पिछड़ी सीट होइ गय तौ हमहूँ खड़े होइ गेन तौ का कौनौ अपराध कय डारा ? कयिव जने खड़े हैं तौ तोहार सब कय नौवव खड़ा है | हम गरीब जरूर हन मुला आपै सबके बल भरोसे रहेन तौ कब्बव भूखा नाही सोवय दिहेव |आजिव हम खड़े तौ अपने मन से भयन है मुला ई जानित है की आप सब कय ताकत हमै पोढ़ किहे है |
              अबकी आप सभे हमका कार पर मोहर लगाय कै जिताय देव |यहै बार-बार हाथ जोरिकै ,पाँव परिकै हम आप सबसे विनती करित है | हम जीतब तौ आपौ सभे छाती ठोंकि कै कहिहौ की हमार नाऊ शफीउल्ला परधान होइगा | जब आज तक हमार खानदान आपै सबके सेवा मा लाग रहा तौ परधान बने पर का हम कहूं अलग भागि जाब ? अरे जेतना सभे बतैहौ,जेतना कहिहौ,जेतना चहिहौ वतना करब | तौ बनाय देव परधानअबकी अपने नाऊ शफीउल्ला का कुछ सोचौ विचारौ ना आज तक सेवा कीन है आगेव बराबर कीन करब |
                   आप सबकै सेवक परधान पद उम्मीदवार---शफीउल्ला 
                      चुनाव चिन्ह ----कार  
 

Monday, October 18, 2010

स्वप्नसुंदरी

संगमरमर की तरासी  मूर्ति हो तुम,
या अजंता की कोई  जीवित  कला |
याकि हो अभिशप्त उतरी मृत्युभू पे ,
देवबाला   हो  कि   कोई   अप्सरा |

शांत यमुना सी- सुकोमल सुमन सी ,
श्याम घन सम केश सुंदर कामिनी |
याकि  भादौं  की   अँधेरी रात   में,
चीर घन चमकी हो चंचल दामिनी |

स्वर्ण  सी  काया  महक  चन्दन  उठे ,
या सुमन  की  मधुर मोहक   गंध हो |
या मनुज-स्वप्नों की अदभुत सुन्दरी ,
या किसी कवि का सरस मधु-छंद हो |


Wednesday, October 13, 2010

चंगा हो मन---

जीवन में नहीं कुछ भी है विश्वास से बड़ा |
नेता न  कोई  हो  सका  सुभाष  से  बड़ा |
चंगा हो मन तो गंगा कठौती में आएँगी ,
न  भक्त  कोई  हो सका  रैदास  से  बड़ा |

Tuesday, October 12, 2010

जिंदगी हमारी इक गरीब की कमीज़ है

सीख लिया इससे ही रोते-रोते हँसना भी,
गम से बड़ा   न कोई   अपना अज़ीज़ है |
जिंदगी के जहर को   पल-पल पीना,और-
हँस-हँस कर    इसे जीना   बड़ी  चीज है |
कोई कहता है, " यार बड़ा है तमीजदार"
कोई कहता है ,  "  यार  बड़ा  बेतमीज है |"
लगे हैं    पैबन्दों पे पैबंद  मेरे मीत , यह-
जिंदगी हमारी इक गरीब की कमीज़ है |



Monday, October 11, 2010

पतझड़ के ठूंठ

मैंने श्रीमतीजी से कहा -
प्राणप्यासे ! बसंत आ रहा है |
वह बोली ,"किसके घर जा रहा है ?
जहाँ जा रहा है- जाने  दो
अपने घर मत बुलाना
बैठे-बिठाये मुसीबत मत लाना
परिवार में छः , मेहमान चार
इन्ही को बनाने-खिलाने में पस्त हूँ 
ऊपर से तुम्हारे सिरफिरे कवियों -
के औचक आगमन से त्रस्त हूँ 
आते ही जम जाते हैं 
चार-चार कवितायेँ सुनाते हैं 
वह भी मामूली नहीं 
द्रौपदी के चीर जैसी -
लम्बी एक-एक होती है 
सुर नहीं लय नहीं 
यति नहीं गति नहीं 
भाव नहीं बात नहीं 
न जाने कौन सी कविता होती है 
ऐसे में अगर बसंत भी -
घर आ गया तो 
संतुलन और भी बिगड़ जायेगा 
अगर कहीं वह भी कवि ठहरा 
तो और तो और 
परिवार संकट में पड़ जायेगा "
मैंने कहा ,"भागवान !
वह कोई कवि नहीं
बहारों का मौसम बसंत है
ऋतुओं का कंत है |"
वह बोली ,"क्या मुझे
समझ रक्खा है घोंघाबसंत ?
हा हन्त! तुम्ही हो मेरे -
तथाकथित पतिपरमेश्वर-कंत !
जिंदगी पतझार बन गयी है
गृहस्थी    इसी   में
रम     गयी है
इसमें बदलाव  की-
कोई    सूरत  नहीं   है
पतझड़ के ठूंठ !
तुम्हारे रहते
मुझे   किसी बसंत की -
जरूरत   नहीं   है |"


 

Friday, October 8, 2010

दीवार पर टँगी तस्वीरें

बिस्तर पर लेटे-लेटे
मै अपनी अलसाई आँखों को
हाथों से मल रहा हूँ , और -
बार-बार देख रहा हूँ
दीवारों पर टँगी तस्वीरें |
ये तस्वीरें ! जो बोलती हैं
ये तस्वीरें ! जो देखती हैं
ये तस्वीरें ! जो हँसती हैं 
और रोती भी हैं 
हर तस्वीर मात्र तस्वीर नहीं 
एक भरी-पुरी कहानी है 
संघर्ष भरे जीवन की
वह बोलती है कि
जब इंसान उठा तो -
कम पड़ गई ऊँचाई आसमान की
और जब गिरा पतन के गर्त में 
तो महासागर की गहराई भी 
छिछली दिखलाई पड़ी 
इन्हीं तस्वीरों में है -
राम का वनवास 
एक विमाता की निष्ठुरता 
एक पिता की विवशता 
भरत और लक्ष्मण जैसे भाइयों का 
अनूठा   भ्रात्रिप्रेम 
तस्वीर फरफराती है -
 हवा के हल्के  झोंके  से 
हिलते-हिलते कह जाती है कहानी -
राम के सर्वस्व त्याग की 
शबरी और निषाद के प्रेम की 
जटायु के पौरुष की 
विद्वान् रावण के अहंकार की -
मोह    की 
और फिर उस महासंग्राम की 
उनीदी आँखें गीली हो जाती हैं -
जब आता है प्रसंग 
सीता-वनवास का !
नारी की विवशता तब और अब 
सीता की अग्निपरीक्षा 
तब    और   अब 
तब भी जली -  आग में नहीं 
घुटन भरे निर्वासित जीवन में 
और शायद आज भी 
जल ही रही है --अनवरत 
इन्हीं तस्वीरों में है- 
कृष्ण की रासलीला 
प्रेम का अद्भुत दर्शन 
मक्खन चुरा-चुरा कर खा रहा है वह 
और खिला भी रहा है -
अपने सखा ---ग्वाल-बालों को 
वह ब्रज के पौरुष को 
सबल बना रहा है 
दूध दही मक्खन बाहर जाने से रोककर 
गोपियों का चीरहरण करता है
जिससे वे दुबारा न नहा सकें -
निर्वस्त्र     होकर
लज्जाहरण से बचा रहा है -
      द्रौपदी को
वस्त्रों के अम्बार दे रहा है
चीर बढ़ती जा रही है
भरी सभा में हो रहे चीरहरण -
को रोक रहा है
नारी अस्मिता की -
रक्षा कर रहा है वह
मै देखता हूँ - देखता जाता हूँ
कल की द्रौपदी और आज की
कृष्ण कहाँ है ? खोज रहा हूँ
इन्हीं तस्वीरों में हैं -
नानक  बुद्ध   गाँधी
ईसा     और    कबीर
एक सम्पूर्ण     जीवन
जो जिया गया -
मानव और समाज के -
कल्याण     के लिए
हम उन्हें दीवारों पर टांगकर
शोभा   बढ़ा रहे हैं -
अपने कमरों    की
कभी-कभी निगाह पड़ती है -
      अचानक
नहीं तो सब कुछ चलता रहता है
और ये तस्वीरें टँगी रहती हैं
हँसती हैं ये तस्वीरें हम पर -
हमारी जिन्दगी पर
जो हम जी रहे हैं - इंसानी जिन्दगी कहकर
    आदर्शों     को     ओढ़कर
हँसती हैं ये तस्वीरें क्योंकि -
ये जानती हैं हमारी इस वितृष्णा से भरी
  सूअर  सी जिंदगी   का परिणाम
तस्वीरें   फरफराती हैं -
हवा के हल्के   झोंकों  से
और मै देखता जा रहा हूँ इन्हें
   उनीदी     आँखों    से 




Thursday, October 7, 2010

कल मिली थी मुझसे मेरी कविता

हाँ मै सच कह रहा हूँ
क्या तुम मानोगे ? नहीं !
कोई नहीं मानेगा
मगर मैं सच कह रहा हूँ
कल मिली थी मुझसे -
मेरी कविता
हाँ हाँ मिली थी वह
जिसकी तलाश थी -
मुझे वर्षों से
शायद वह भी मुझे -
तलाश रही थी
हाँ-हाँ वही थी मेरी कविता
जन्मों-जन्मों की अतृप्त प्यास
काश वह पहले मिल जाती
इसी जन्म के -
शुरुवाती दिनों में
बस कुछ वर्षों पहले
पर ऐसा नहीं हुआ
क्योंकि यह नहीं होना था
कविता!  एक प्यास
सिर्फ और सिर्फ प्यास
गर बुझ गई तो-
प्यास    कैसी ?
हाँ वही प्यास
कल मिली मुझ से
नदी के दूसरे छोर की तरह
मैंने देखा उसे - देखता ही रहा
प्यास बढ़ी - बढ़ती गयी प्यास 
मुह मोड़ लिया मैंने 
लौट पड़ा उल्टे पांव 
अपनी प्यास में जीने के लिए 
क्योंकि मै समझ चुका था 
कि न कभी देखा गया 
न सुना गया 
नदी के दो किनारों को 
गले मिलते - 
आलिंगनवद्ध    होते ! 

       

Wednesday, October 6, 2010

संबंधों का दर्द

स्वारथरत सम्बन्ध मिले सब,बंधन गांठ लिए |
प्रीति मिली तो नागिन जैसी सुन्दर,गरल हिये |
ह्रदय मिला तो काजल जैसा, मन मटमैला पानी |
चित्त लिए दुर्गम  चंचलता , बोल कर्ण सा दानी  |
भुजा कटी तो भुजा न रोई, शीश कटा धड़ हँसता |
पेट अकेला   बड़वानल सा,   क्षार   क्षीरनद   करता  |
कंचन के  प्यासे हो भँवरे ,  महक   सुमन  की भूले |
स्वर मिठास-आवरण  लिए ,  कैसे  अंतर्मन  छू ले ?



Monday, October 4, 2010

ग़ज़ल


मिला जवाब नहीं   कैसे    अब  करार  आये |
पुकारने की हदों तक   तो  हम पुकार  आये |
पूरा का पूरा   अपना हिंद   वाह क्या कहना ,
मगर लुटने की जद में यूपी औ बिहार आये |
जिस्म   ये डेंट-पेंट     चमकता है   ऊपर से ,
छू के मेडम ने  कहा   मेरे   जांनिसार  आये |
गढ़ दिया जिसने है  खिलौना  आदमी जैसा ,
ज़ेहन में  उससे बड़ा   न कोई कुम्हार आये |
घर में  राशन   नहीं है    रोते हैं   भूखे बच्चे ,
उधारी  पहले  से है   कैसे  अब  उधार आये |